Tuesday 10 January 2012

ख़ुदा का नूर


ख़ुदा का नूर by Farhat Durrani Jan.10th, 2012


ख़ुदा का नूर

ख़ुदा तो सारे आसमान और ज़मीन का नूर है उसके नूर की मिसाल (ऐसी) है जैसे एक ताक़ (सीना) है जिसमे एक रौशन चिराग़ (इल्मे शरीयत) हो और चिराग़ एक शीशे की क़न्दील (दिल) में हो (और) क़न्दील (अपनी तड़प में) गोया एक जगमगाता हुआ रौशन सितारा (वह चिराग़) जैतून के मुबारक दरख्त (के तेल) से रौशन किया जाए जो न पूरब की तरफ हो और न पश्चिम की तरफ (बल्कि बीचों बीच मैदान में) उसका तेल (ऐसा) शफ्फाफ हो कि अगरचे आग उसे छुए भी नही ताहम ऐसा मालूम हो कि आप ही आप रौशन हो जाएगा (ग़रज़ एक नूर नहीं बल्कि) नूर आला नूर (नूर की नूर पर जोत पड़ रही है) ख़ुदा अपने नूर की तरफ जिसे चाहता है हिदायत करता है और ख़ुदा तो हर चीज़ से खूब वाक़िफ है

सूरह-अन-नूर आयत:35
क़ुर'आन

ख़ुदा, ख़ुदा है, वो सब पे क़ादिर है जब तो फिर क्यों
तमाम खल्के-ख़ुदा को शक है.
वो चाह ले तो तमाम दुनिया को एक पल में मिटा के रख दे
मगर वो मखलूक के दिलों में
मुहब्बतों के चराग़ रोशन किए हुए है.
हवस-परस्ती में रास्ते से भटक गए हैं जो चंद इन्सां
वही तो अपनी शिकस्त ख़ुर्दा अना की ज़िद में
अड़े हुए हैं.
वो नफ़रतों की तमाम फ़सलों को खून देने में मुन्हमिक हैं
उन्हें पता भी नहीं कि उनका ये कारे-बेजा
हमारी नस्लों को उनके वरसे में जंग देगा
तमाम इंसानियत की चीख़ें सुनेंगे हम-तुम
ज़मीं पे क़ह्तुर्रिज़ाल होगा.
सो, ऐसा मंजर कभी न आए
ख़ुदा-ए-बरतर
दुआ है तुझ से
हवस-परस्तों के तंग दिल को वसीअ कर दे
कुदूरतों को मिटा के उन में भी नूर भर दे
मुहब्बतों का सुरूर भर दे, मुहब्बतों का सुरूर भर दे!

-संजय मिश्रा 'शौक'

Thursday 8 December 2011

मोजिज़ा है हुसैन(अ.स) का मातम,,आज भी मोजिज़े दिखाता है

Farhat Durrani December 07, 2011


मोजिज़ा है हुसैन(अ.स) का मातम,,आज भी मोजिज़े दिखाता है
14 सदियाँ गुज़र गईं लोगों खून-ए-शब्बीर अब भी ताज़ा है

ये वो मेराज है इबादत की जिसकी बानी है सानी-ए-ज़हरा
ये इबादत जहां भी होती है वाँ पहुँचता है ख़ाना-ए-काबा
क़ुदसी आ कर सफें बनाते हैं, नौहे क़ुर'आन पढ़ने आता है..

इसकी मसनद है मजलिस-ए-शब्बीर और रियासत है करबला इसकी
इसकी तलवार दस्त-ए-मोमिन है, खूं से रंगीन है क़बा इसकी
दीन को इसने ज़िन्दगी दी है, शह के क़ातिल को मार डाला है..

इसका मंशूर नौहा-ख्वानी है इसमें शामिल हैं 2 जहाँ के बैन
हाय शब्बीर इसका नारा है इसकी आवाज़ है हुसैन - हुसैन
यह ही नक़क़ारा-ए-ख़ुदा भी है, ये ही एलान-ए-फ़तेह काबा है..

जिसको हुब्बे रसूल(स.अ.व) है वो ही,ग़म-ए-सिब्ते नबी में रोता है
अपने सीने पे हाथ हम मारें, दर्द ग़ैरों के दिल में होता है
हक़-ओ-बातिल की यह कसौटी है,दीं की तबलीग़ का हवाला है..

सोचिये क्या है मातमे ज़ंजीर, ज़ख्मे सज्जाद की निशानी है
यादे शब्बीर में अगर ना बहे तो समझलो के खून पानी है
सबसे आला जिहाद दुनिया में ख़ुद ही अपना लहू बहाना है..

जब भी होता है मातमे सरवर, रूह-ए-ज़हरा दुआएं देती है
आज भी करबला में जा के सुनो,कोई बीबी सदाएं देती है
घर किसी का ना इस तरहा उजड़े,मेरा घर जिस तरहा से उजड़ा है..

शह ने तन्हा जवाँ के लाशें को,रन में किस तरहा से उठाया था
बस ये ही वो मुक़ाम है के जहां, ख़ुद इब्राहीम लडखडाया था
शह के अज़्मो-हौसले के लिए अम्बिया का सलाम आया है..

मार्का-ए-कर्बला


Farhat Durrani December 07, 2011


इमाम हुसैन ने समझ लिया कि इस्लाम और सच्चाई को बचाने के लिए उन्हें जान तो देना है मगर इस तरह की दुनिया को स्पष्ट मालूम हो कि हुसैन ने क्यों जान दी ? और उनके दुश्मनों ने उन्हें क्यों मारा ? यानी सत्य और असत्य की जो लड़ाई संसार में सदैव से होती आयी है वह एक नये ढंग से लड़कर दिखाई जाय...

मार्का-ए-कर्बला
यजीद वो नहीं था जिसको मैंने खत्म किया,
यजीद आज भी उन जालिमों में ज़िंदा है.
जो सियासत के बीच मजहबों को लाते हैं,
कि जिनके नाम पे इंसानियत शर्मिन्दा है.

वास्तव में, यजीद , हज़रत इमाम हुसैन का कुछ न बिगाड़ पाया. हज़रत इमाम हुसैन ने ही यजीद को खत्म कर दिया .. आज यजीद के नाम पर अपना नाम रखनेवाला कोई न मिलेगा मगर इमाम हुसैन के नाम वाले लाखों मिल जायेंगें.हज़रत जिब्राइल ने सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रसूलल्लाह को हुसैन के जन्म के बाद ही बता दिया था कि वे शहीद होगे ..

यजीद वो नहीं था जिसको मैंने खत्म किया, यजीद आज भी उन जालिमों में ज़िंदा है. जो सियासत के बीच मजहबों को लाते हैं, कि जिनके नाम पे इंसानियत शर्मिन्दा है. वास्तव में, यजीद , हज़रत इमाम हुसैन का कुछ न बिगाड़ पाया. हज़रत इमाम हुसैन ने ही यजीद को खत्म कर दिया .. आज यजीद के नाम पर अपना नाम रखनेवाला कोई न मिलेगा मगर इमाम हुसैन के नाम वाले लाखों मिल जायेंगें.हज़रत जिब्राइल ने सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रसूलल्लाह को हुसैन के जन्म के बाद ही बता दिया था कि वे शहीद होगे ..



by: Aravind Pandey : परावाणी : शाश्वत कविता :The Eternal Poetry

लिबास है फटा हुआ, ग़ुबार में अटा हुआ ..


Farhat Durrani December 06, 2011


लिबास है फटा हुआ, ग़ुबार में अटा हुआ
तमाम जिस्म ए नाज़नीं छिदा हुआ,कटा हुआ
ये कौन ज़ीवक़ार है बला का शहसवार है
के है हज़ारों कातिलों के सामने डटा हुआ
ये बिल यकीं हुसैन (अ.स) है
नबी (स.अ.व) का नूरे ऐन है

के जिसकी एक ज़र्ब से, कमाले फने हर्ब से
कई शक़ी गिरे हुए तड़प रहे है कर्ब से
ग़ज़ब है तेग़ ए दो-सर, के एक-एक वार पर
उठी सदाए अलअमां ज़बाने शरक़ो गर्ब से
ये बिल यकीं हुसैन (अ.स) है
नबी (स.अ.व) का नूरे ऐन है

ये कौन हक़परस्त है मये रज़ा से मस्त है
के जिसके सामने कोई बलंद है न पस्त है
उधर हज़ार घात है है मगर अजीब बात है
के एक से हज़ारहा का हौसला शिकस्त है
ये बिल यकीं हुसैन (अ.स) है
नबी (स.अ.व) का नूरे ऐन है

अबा भी तार-तार है वो ज़ख्म भी फिगार है
ज़मीं भी है तपी हुयी फलक भी शोलाबार है
मगर ये मर्दे तेग़-ज़न ये सफ-शिकन फलक फिगार
कमाल ए सब्रो तनदेही से महवे कारज़ार है
ये बिल यकीं हुसैन (अ.स) है
नबी (स.अ.व) का नूरे ऐन है

दिलावरी में फर्द है बड़ा ही शेर मर्द है
के जिसके दबदबे से दुश्मनों का रंग ज़र्द है
हबीब ए मुस्तफा है ये, मुजाहिदे ख़ुदा है ये
जभी तो इसके सामने ये फ़ौज गर्द-बर्द है
ये बिल यकीं हुसैन (अ.स) है
नबी (स.अ.व) का नूरे ऐन है

उधर सिपाहे शाम है हज़ार इंतेक़ाम है
उधर हैं दुश्मनाने दीं, इधर फ़क़त इमाम (अ.स) है
मगर अजीब शान है गज़ब की आन-बान है
के जिस तरफ उठी है तेग़, बस ख़ुदा का नाम है
ये बिल यकीं हुसैन (अ.स) है
नबी (स.अ.व) का नूरे ऐन है

--हफीज़ जालंधरी





Image: Shrine of Hazrat Imam Husain (A.S.), Karbala, IRAQ

इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम ) ने कहा

Farhat Durrani December 04, 2011

इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम ) ने कहा ऐ नाना, मैंने अल्लाह के दीन को आप से किये गए वादे के अनुसार कर्बला के मैदान में अपने तमाम बच्चों, साथियों और अंसारों की क़ुर्बानी देकर बचा लिया! नाना, मेरे ६ महीने के असग़र को तीन दिन की प्यास के बाद तीन फल का तीर मिला !

मेरा बेटा अकबर, जो आप का हमशक्ल था, उसके सीने में ऐसा नैज़ा मारा गया की उसका फल उसके कलेजे में ही टूट गया ! मेरी बच्ची सकीना को तमाचे मार-मार कर इस तरह से उसके कानो से बालियाँ खींची गयी के उसके कान के लौ कट गए ! नाना मैंने दिखा दिया दुनिया को अपनी क़ुरबानी देके की वो इस्लाम जो आपने दिया था ज़ुल्म और दहशतगर्दों का इस्लाम नहीं बल्कि अमन शांति और सब्र का इस्लाम है

HAZRAT ALI ASGHAR THE GUIDING STAR OF PEACE



Farhat Durrani December 3, 2011


शहीदों के इस समूह में जो शहीद किया गया, ६ महीने का शिशु (हज़रत अली असग़र अ:स) था, जिसको तीन दिनों तक भोजन और पानी नहीं दिया गया. अली असग़र (अ:स) अपने प्यासे पिता की गोद में ऐसा प्यासा शहीद हुआ की उसके गर्दन पर तीन फल का एक भारी भरकम तीर जो ज़हर में बुझा हुआ था मारा गया! उसके पिता असग़र (अ:स) को पानी पिलाने के लिए लड़ाई के मैदान में ले गए थे और दुश्मनों ने पानी की जगह इस ज़हर बुझे तीर को दिया और बच्चा प्यासा शहीद हो गया
ए छः महीने वाले तुझको मेरा सलाम !!!!!!!



HAZRAT ALI ASGHAR
THE GUIDING STAR OF PEACE
(Declared by European Scholars after World War-II)

After 2nd World War the scholars and thinkers of Europe resolved in a conference to ‘APPEAL FOR PEACE’ to all the powers in the world in the name of HAZRAT ALI ASGHAR.

The great FRENCH POET, ALEXANDER GINIL composed a poem of 1500 couplets regarding the tragedic event of HAZRAT ALI ASGHAR. This composition has also been translated in English. The poem was sent to all the Governments in the world and to the UNO as an appeal for peace.

FOLLOWING ARE A FEW COUPLETS OUT OF SAME TRANSLATION

1. Ali Asghar, celestial star of every child,
Master of bruised bodies and hearts triumphants
Towards thee rises, time without end, the unquenchable
Flame of eternal love, which thou to our souls hast given.

2. The martyrdom in the middle of the stifling desert,
of Karbala, held close in thy father’s arms,
In the midst of thousands of sorrows,
In the desert which saw thy doom and thy victory,
Will exalt without end the love in our hours,
Thy young blood shed in honour’s name,
Like a sun dying in its own purpled glory,

3. The little innocents were refused a drop of water,
And the victims of the tyrants fury,
But thy death, noble child, facing the armies,
Thy martyrdom among the deserts scorching stones,
Will, attest forever the wickedness of the tyrants,
Who left thee too perish of a terrible thirst,
And to thy dying lips,
Refusing the charity of a drop of water,
The end in the scorching desert.

4. Child: You have risen above the tribes of the world,
You have risen like a star of stars
In the arms of your venerated father.
Your death fertilized the desert sands,
And in every heart you reached the pinnacle of love

5. At the day of Judgment,
We too shall say: KERBALA!
Thy martyrdom, O our Master ALI-ASGHER,
Has engraved Thee in our hearts,
Thy name shall ever be on our lips!
From your place so high, pray with us,
For an age of Gold, so that Justice,
Will open up all paths!
Never can we think of Kerbala
Without remembering Thy glorious martyrdom
Now we shall ever pray that a new era,
of LOVE and JUSTICE and PEACE
Shall reign in our world for ever.
[Hazrat Ali Asghar(a.s.),only 6 months old was the youngest martyr of Karbala.]

हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद साहेब माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी


Farhat Durrani November 30, 2011

पेश ऐ खिदमत है विश्वनाथ प्रसाद साहेब माथुर * लखनवी का १३८३ हिजरी मैं लिखा यह मशहूर लेख़।
हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद साहेब माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी

आँख में उनकी जगह , दिल में मकां शब्बीर का
यह ज़मीं शब्बीर की , यह आसमान शब्बीर का
जब से आने को कहा था , कर्बला से हिंद में
हो गया उस रोज़ से , हिन्दोस्तान शब्बीर का

माथुर * लखनवी

पेश लफ्ज़
अगर चे इस मौजू या उन्वान के तहत मुताद्दिद मज़ामीन , दर्जनों नज्में ,और बेशुमार रिसाले शाया हो चुके हैं , लेकिन यह मौजू अपनी अहमियत के लिहाज़ से मेरे नाचीज़ ख्याल में अभी तश्न ए फ़िक्र ओ नज़र है . इस लिए इस रिसाले का उन्वान भी मैं ने ” हुसैन और भारत ” रखा है और मुझे यकीन है के नाज़रीन इसे ज़रूर पसंद फरमाएं गे।
नाचीज़ ,
माथुर * लखनवी

इराक और भारत का ज़ाहिरी फासला तो हज़ारों मील,का है. अगर चे इस फासले को मौजूदा ज़माने की तेज़ रफ़्तार सवारियों ने बहोत कुछ आसान कर दिया है , लेकिन सफ़र की यह सहूलतें आज से १३२२ बरस पहले मौजूद ना थीं।
मुहर्रम ६१ हिजरी . में हजरत मोहम्मद साहेब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन ने भारत की सरज़मीन पर आने का इरादा फ़रमाया था , और उन्होंने अपने दुश्मन यज़ीद की टिड्डी दल फ़ौज के सिपह सालार उमर इब्ने साद से अपनी चंद शर्तों के नामंज़ूर होने के बाद यह कहा था के अगर मेरी किसी और शर्त पर राज़ी नहीं है तो मुझे छोड़ दे ताकि मैं भारत चला जाऊं।

मैं अक्सर यह ग़ौर करता रहता हूँ के तेरह सौ साल पहले जो सफ़र की दुश्वारियां हो सकती थीं , उनको पेशे नज़र रखते हुए हजरत इमाम हुसैन का भारत की सरज़मीन की जानिब आने का क़स्द (इरादा ) करना , और यह जानते हुए के ना तो उस वक़्त तक फ़ातेहे सिंध , मुहम्मद . बिन क़ासिम पैदा हुआ था , और ना हम हिन्दुओं के मंदिरों को मिस्मार करने वाला महमूद ग़ज़नवी ही आलमे वुजूद में आया था . न उस वक़्त भारत में कोई मस्जिद बनी थी और ना अज़ान की आवाज़ बुलंद हुई थी , बल्कि एक भी मुसलमान तिजारत या सन’अत ओ हिर्फ़त की बुनियाद पर भी यहाँ ना आ सका था , ना मौजूद था . उस वक़्त तो भारत में सिर्फ चंद ही कौमें आबाद थीं , जो बुनियादी तौर से हिन्दू मज़हब से ही मुताल्लिक हो सकती हैं . मगर इन् तमाम हालात का अंदाजा करने के बाद भी के भारत में कोई मुसलमान मौजूद नहीं है , हजरत इमाम हुसैन ने उमर ए साद से क्यों यह फरमाया के मुझे भारत चला जाने दे ।
अगरचे हज़रत इमाम हुसैन की शहादत से पहले किसी ना किसी तरह सरज़मीने ईरान तक इस्लाम पहुँच चुका था , और सिर्फ ईरान ही पर मुनहसिर नहीं है , बल्कि हबश को छोडकर जहाँ हजरत अली के छोटे भाई जाफ़र ए तय्यार कुरान और इस्लाम का पैग़ाम लेकर गए थे। दीगर मुल्क भी ईरान की तरह जंग ओ जदल के बाद उसवक्त की इस्लामी सल्तनत के मातहत आ चुके थे। जैसे के मिस्र वा शाम वगैरह , इसलिए हजरत इमाम हुसैन के लिए भारत के सफ़र की दुश्वारियां सामने रखते हुए यह ज़्यादा आसान था के वो ईरान चले जाते , या मिस्र ओ शाम जाने का इरादा करते , मगर उनहोंने ऎसी किसी तमन्ना का इज़हार नहीं किया , सिर्फ भारत का नाम ही उनकी प्यासी जुबां पर आया।
खुसूसियत से हबश जाने की तमन्ना करना हजरत इमाम हुसैन के लिए ज्यादा आसान था , क्यूंकि ना सिर्फ बादशाहे हबश और उसके दरबारी इस्लाम कुबूल कर चुके थे बल्कि हजरत इमाम हुसैन के हकीकी चाचा हजरत जाफ़र के इखलाक वा मोहब्बत से बादशाहे हबश ज्यादा मुतास्सिर भी हो चुका था . यहाँ तक के उसने खुद्द हजरत जाफ़र के ज़रिये से भी और उनके बाद मुख्तलिफ ज़राएय से रसूले इस्लाम और हजरत अली की खिदमत में बहुत कुछ तोहफे भी रवाना किये थे , बलके वाकेआत यह बताते हैं के ख़त ओ किताबत भी बादशाहे हबश से होती रहती थी ।

दूसरा सबब हबश जाने की तमन्ना का यह भी हो सकता था के उसवक्त जितनी दिक्क़तें हबश का सफ़र करने के सिलसिले में इमाम हुसैन को पेश आतीं , वो इससे बहोत कम होतीं जो हिन्दोस्तान के सफ़र के सिलसिले में ख्याल की जा सकती थीं . मगर हबश की सहूलतों को नज़र अंदाज़ करने के बाद हजरत इमाम हुसैन किसी भी गैर मुस्लिम मुल्क जाने का इरादा नहीं करते , बल्कि उस हिन्दोस्तान की जानिब उनका नूरानी दिल खींचता हुआ नज़र आता है , जहाँ उसवक्त एक भी मुसलमान ना था . आखिर क्यों ? येही वो सवाल है जो बार बार मेरे दिमाग के रौज़नों में अकीदत की रौशनी को तेज़ करता है , और अपनी जगह पर मैं इस फैसले पर अटल हो जाता हूँ के जिस तरह से हिन्दोस्तान वालों को हजरत इमाम हुसैन से मोहब्बत होने वाली थी उसी तरह इमाम हुसैन के दिल में हम लोगों की मोहब्बत मौजूद थी।

karbala

मोहब्बत वो फितरी जज्बा है जो दिल में किसी की सिफारिश के बग़ैर ख़ुद ब ख़ुद पैदा होता है , और कम अज कम मैं उस मज़हब का क़ायल नहीं हो सकता , या उस मोहब्बत पर ईमान नहीं ला सकता जिसका ताल्लुक जबरी हो . दुनिया में सैकड़ों ही मज़हब हैं , और हर मज़हब का सुधारक यह दावा करता है के उसी का मज़हब हक है , और यह फैसला क़यामत से पहले दुनिया की निगाहों के सामने आना मुमकिन नहीं है , के कौन सा मज़हब हक है . लेकिन चाहे चंद मज़हब हक हों , या एक मज़हब हक हो , हम को इससे ग़रज़ नहीं है , हम तो सिर्फ मोहब्बत ही को हक जानते हैं ,और शायद इसी लिए दुनिया के बड़े बड़े पैग़ंबरों और ऋषियों ने मोहब्बत ही की तालीम दी है ।
मोहब्बत का मेयार भी हर दिल में यकसां नहीं होता , मोहब्बत एक हैवान को दुसरे हैवान से भी होती है , और इंसानों में भी मोहब्बतों के अक्साम का कोई शुमार नहीं है , माँ को बेटे से और बेटे को माँ से मोहब्बत होती है , बहन को भाई से और भाई को बहन से मोहब्बत होती है , चाचा को भतीजे से और भतीजे को चाचा से , बाप को बेटे से और बेटे को बाप से मोहब्बत होती है . इन् तमाम मोहब्बतों का सिलसिला नस्बी रिश्तों से मुंसलिक होता है . लेकिन ऎसी भी मोहब्बतें दुनिया में मौजूद हैं , जो शौहर को ज़ौजा से और ज़ौजा को शौहर से होती है , या एक दोस्त को दूसरे दोस्त से होती है , इन् सब मोहब्बतों का इन्हेसार सबब या असबाब पर होता है . मगर वो मोहब्बतें इन् तमाम मोहब्बतों से बुलंद होती हैं , जो इंसानियत के बुलंद तबके में पाई जाती हैं , मसलन पैग़म्बर नूह को अपनी कश्ती से मोहब्बत , या हजरत इब्राहीम को अपने बेटे इस्माइल से मोहब्बत , या हजरत मोहम्मद (स) को अपनी उम्मत से मोहब्बत , यह तमाम मोहब्बतें उस मेयार से बहोत ऊंची होती हैं , जो आम सतेह के इंसानों में पाई जाती हैं . लिहाज़ा यह मानना पढ़ेगा के हजरत इमाम हुसैन के दिल में हिन्दोस्तान और उसके रहने वालों की जो मोहब्बत थी , वो उसी बुलंद मेयार से ता’अलुक रखती है जो पैग़म्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद साहेब को अपनी उम्मत से हो सकती हो , क्योंके अगर यह मोहब्बत आला मेयार की ना होती तो उसका वजूद वक्ती होता , या उस अहद से शुरू होती , जब से इस्लाम हिन्दोस्तान में आया . जब हम ग़ौर करते हैं तो यह मालुम होता है के हजरत इमाम हुसैन की मोहब्बत का लामुतनाही सिलसिला १३२२ बरस पहले से रोज़े आशूर शरू होता है , और यह सिलसिला उसवक्त तक बाक़ी रहने का यकीन है जब तक दुनिया और खुद हिन्दोस्तान का वजूद है ।

ये बात भी इंसान की फितरत तस्लीम कर चुकी है के रूहानी पेशवा जितने भी होते हैं उनमें से अक्सर को ना सिर्फ गुज़रे हुए वाकेअत का इल्म होता है , बल्कि आइंदा पेश आने वाले हालात भी उनकी निगाहों के सामने रहते हैं ।
हजरत इमाम हुसैन का भी ऐसी ही बुलंद हस्तियों में शुमार है , जिनको आइंदा ज़माने के वाकेआत वा हालात का मुकम्मल तौर से इल्म था , और इसी बिना पर वो जानते थे के उनके चाहने वाले हिन्दोस्तान में ज़रूर पैदा होंगे . जैसा के उनका ख्याल था , वो होकर रहा , और यहाँ इस्लाम के आने से पहले हिमालय की सर्बुलंद चोटियों पर “ हुसैन पोथी “ पढ़ी जाने लगी . ज़ाहिर है के जब मुस्लमान सरज़मीं इ भारत पर आए नहीं थे। '

उस वक़्त हुसैन की पोथी पढ़ने वाले सिवाए हिन्दुओं के और कौन हो सकता है ? हो सकता है के उसी वक़्त से सर ज़मीन ए हिंदोस्तान पर हुस्सैनी ब्रह्मण नज़र आने लगे हों , जिनका सिलसिला अब तक जारी है , बल्की यह तमाम ब्रह्मण मज्हबन हिन्दू मज़हब के मानने वाले होते हैं सदियों से , लेकिन मोहब्बत के उसूल पर वो हुसैन की तालीम को बहोत अहमियत देते हैं . यूं तो हुस्सैनी ब्रह्मण पूरे मुल्क में दिखाई देते हैं , मगर खुसूसियत से जम्मू और कश्मीर के इलाके में इनलोगों की कसीर आबादी है , जो हमावक़्त हुस्सैनी तालीम पर अमल पैर होना सबब ए फ़ख़्र जानते हैं ।
लिहाज़ा यह तस्लीम कर्म पढ़ेगा के हजरत इमाम हुसैन को हिन्दोस्तान और उसके रहने वालों से जो मोहब्बत थी , वो न सिर्फ हकीकत पर मबनी कही जा सकती है , बलके उनकी मोहब्बत के असरात उनकी शहादत के कुछ ही अरसे बाद से दिलों में नुशुओनुम पाने लगे . हम नहीं कह सकते के इमाम हुसैन की मोहब्बत को और उनके ग़म को हिन्दोस्तान में लेने वाला कौन था , जबके (यहाँ ) मुसलामानों का उसवक्त वजूद ही नहीं था , लिहाज़ा यह भी मानना पढ़ेगा के इमाम हुसैन के ग़म को या उनकी मोहब्बत को सरज़मीने हिन्दोस्तान पर पहुँचाने वाली वोही गैबी ताक़त थी , जिसने उनके ग़म में आसमानों को खून के आंसुओं से अश्कबार किया , और फ़ज़ाओं से या हुसैन की सदाओं को बुलंद कराया ।

और अब तो हुसैन की अज़मत , उनकी शख्सीयत और उनकी बेपनाह मोहब्बत का क्या कहना . हर शख्स अपने दिमाग से समझ रहा है , अपने दिल से जान रहा है , और अपनी आँखों से देख रहा है , के सिर्फ मुसलमान ही मुहर्रम में उनका ग़म नहीं मानते , बल्कि हिन्दू भी ग़म ए हुसैन में अजादार होकर इसका सुबूत देते हैं के अगर इमाम हुसैन ने आशूर के दिन हिन्दोस्तान आने का इरादा ज़ाहिर किया था , तो हम हिन्दुओं के दिल में भी उनकी मोहब्बत के जवाबी असरात नुमायाँ होकर रहते हैं ।

मुहर्रम का चाँद देखते ही , ना सिर्फ ग़रीबों के दिल और आँखें ग़म ऐ हुसैन से छलक उठती हैं , बल्कि हिन्दुओं की बड़ी बड़ी शख्सियतें भी बारगाहे हुस्सैनी में ख़ेराज ए अक़ीदत पेश किये बग़ैर नहीं रहतीं । अब तो खैर हिन्दोस्तान में खुद मुख्तार रियासतों का वजूद ही नहीं रहा , लेकिन बीस बरस क़ब्ल तक , ग्वालियर की अज़ादारी और महाराज ग्वालियर की इमाम हुसैन से अकीदत इम्तेयाज़ी हैसियत रखती थी ।

अगर चे मुहर्रम अब भी ग्वालियर में शान ओ शौकत के साथ मनाया जाता है , और सिर्फ ग्वालियर ही पर मुन्हसिर नहीं है इंदौर का मुहर्रम और वहां का ऊंचा और वजनी ताज़िया दुनिया के गोशे गोशे में शोहरत रखता है . हैदराबाद और जुनूबी हिन्दोस्तान में आशूर की रात को हुसैन के अकीदतमंद आग पर चल कर मोहब्बत का इज़हार करते है , वहां अब भी एक महाराज हैं जो सब्ज़ लिबास पहन कर , और अलम हाथ में लेकर जब तक दहेकते ही अंगारों पर दूल्हा दूल्हा कहते ही क़दम नहीं बढ़ाते , तब तक कोई मुस्लमान अज़ादार आग पर पैर नहीं रख सकता। यह क्या बात है हम नहीं जानते , और हुसैन के मुताल्लिक़ बहुत सी बातें ऐसी हैं जिसको चाहे अक्ल ना भी तस्लीम करती हो , मगर निगाहें बराबर दिखती रहती हैं । यानी अगर हजरत इमाम हुसैन के ग़म या उनकी अज़ादारी में गैबी ताक़त ना शामिल होती तो वो करामातें दुनिया ना देख सकती जो हर साल मुहर्रम में दिखती रहती है . अगर आज सिगरेट सुलगाने में दियासलाई का चटका ऊँगली में लग जाता है तो छाला पढ़े बग़ैर नहीं रहता , इस लिए के आग का काम जला देना ही होता है , मगर दहकते हुए अंगारों पर हुसैन का नाम लेने के बाद रास्ता चलना और पांव का ना जलना , या छाले ना पढ़ना , हुसैन की करामत नहीं तो और क्या है ?

इससे इनकार नहीं किया जा सकता के हमारे भारत में इराक से कम अज़ादारी नहीं होती , यह सब कुछ क्या है ? उसी हुसैन की मोहब्बत का करिश्मा और असरात हैं , जिसने अपनी शहादत के दिन हिन्दोस्तान आने का इरादा ज़ाहिर किया था ।

दुनिया के हर मज़हब में मुक़्तदिर शख्सियतें गुजरी हैं , और किसी मज़हब का दामन ऐसी बुलंद ओ बाला हस्तियों से ख़ाली नहीं है जिनकी अजमत बहार तौर मानना ही पढ़ती है। जैसे के ईसाईयों के हजरत ईसा , या यहूदियों के हजरत मूसा . मगर जितनी मजाहेब की जितनी भी काबिले अजमत हस्तियाँ होती हैं , उनको सिर्फ उसी मज़हब वाले अपना पेशवा मानते हैं , जिस मज़हब में वो होती हैं । अगर चे एहतराम हर मज़हब के ऋषियों , पेशवाओं , पैग़ंबरों का हर शख्स करता है । लेकिन इस हकीकत से चाहे हजरत इमाम हुसैन के दुश्मन चश्म पोशी कर लें , मगर हम लोग यह कहे बग़ैर नहीं रह सकते के हजरत इमाम हुसैन की बैनुल अक़वामी हैसियत और उनकी ज़ात से , बग़ैर इम्तियाज़े मज्हबो मिल्लत हर शख्स को इतनी इतनी गहरी मोहब्बत है , जितनी के किसी को किसी से नहीं है . ऐसा क्यूँ है , हम नहीं कह सकते , क्यूँ के बहुत सी बातें ऐसी भी होती हैं जो ज़बान तक नहीं आ सकती हैं , मगर दिल उनको ज़रूर महसूस कर लेता है ।

आप दुनिया की किसी भी पढ़ी लिखी शख्सियत से अगर इमाम हुसैन के मुताल्लिक़ दरयाफ्त करेंगे तो वो इस बात का इकरार किये बग़ैर नहीं रह सकेगा के यकीनन हुसैन अपने नज़रियात में तनहा हैं , और उनकी अजमत को तस्लीम करने वाली दुनिया की हर कौम , और दुनिया का हर मज़हब , और उसके तालीम याफ्ता अफराद हैं ।
एक बात मेरी समझ में और भी आती है , और वो यह के हिन्दोस्तान चूंके मुख्तलिफ मज़हब के मानने वालों का मरकज़ है , और इमाम हुसैन की शख्सियत में ऐसा जज्बा पाया जाता है , के हर कौम उनको खिराजे अकीदत पेश करना अपना फ़र्ज़ जानती है। और यह मैं पहले ही अर्ज़ कर चुक्का हूँ के हजरत इमाम हुसैन चूंकि आने वाले वाकेआत का इल्म रखते थे , इसलिए वो ज़रूर जानते होंगे के एक ज़माना वो आने वाला है के जब भारत की सरज़मीन पर दुनिया के तमाम मज़हब के मानने वाले आबाद होंगे . इसलिए हुसैन चाहते थे के दुनिया की हर कौम के अफराद यह समझ लें के उनकी मुसीबतें और परेशानियाँ ऐसी थीं जिनसे हर इंसान को फितरी लगाव पैदा हो सकता है , ख्वाह उसका ता’अल्लुक़ किसी मज़हब से क्यूँ ना हो ।

इसी तरह यज़ीद के ज़ुल्म ओ जौर और उसके बदनाम किरदार को भी उसके बेपनाह मज़ालिम की मौजूदगी में समझा जा सकता है . चुनांचे हकीकत तो वोही होती है जिसको दुनिया का हर वो शख्स तस्लीम करे जिसका ताअल्लुक़ ख्वाह किसी मज़हब से हो। लिहाज़ा हिन्दोस्तान में चूंके हर कौम ओ मज़हब में इन्साफ पसंद हजरात की कमी नहीं है , इसलिए हो सकता है के हजरत इमाम हुसैन ने इसी मकसद को पेश ऐ नज़र रखते हुए यह इरशाद फ़रमाया हो के वो हिन्दोस्तान जाने का इरादा रखते हैं। अगर चे उनकी तमन्ना पूरी ना हो सकी , लेकिन मशीयत का यह मकसद ज़रूर पूरा हो गया के हिन्दोस्तान की सरज़मीन पर रहने वाले बगैरे इम्तियाज़े मज़हब , इमाम हुसैन को मोहब्बत ओ अकीदत के मोती निछावर करते रहते हैं और करते रहेंगे ।